सोमवार, 22 अगस्त 2011

कबीर प्रोजेक्ट


           जीवन परिचय       (जन्म सन् १४४० ई॰-निधन सन् १५१८)
पूरा नाम
संत कबीरदास
अन्य नाम
कबीरा
जन्म
सन १४४० (लगभग)
जन्म भूमि
लहरतारा तालकाशी
मृत्यु
सन १५१८ (लगभग)
मृत्यु स्थान
मगहरउत्तर प्रदेश
अविभावक
नीरु और नीमा
पति/पत्नी
लोई
संतान
कमाल (पुत्र), कमाली (पुत्री)
कर्म भूमि
काशीबनारस
कर्म-क्षेत्र
समाज सुधारक कवि
मुख्य रचनाएँ
साखी, सबद और रमैनी
विषय
सामाजिक
भाषा
अवधी, सधुक्कड़ी, पंचमेल खिचड़ी
शिक्षा
निरक्षर
नागरिकता
भारतीय
 ‘कबीर’ भक्ति आन्दोलन के एक उच्च कोटि के कवि, समाज सुधारक एवं संत माने जाते हैं.
संत कबीर दास हिंदी साहित्य के भक्ति काल के इकलौते ऐसे कवि हैं, जो आजीवन समाज और लोगों के बीच व्याप्त आडंबरों पर कुठाराघात करते रहे. वह कर्म प्रधान समाज के पैरोकार थे और इसकी झलक उनकी रचनाओं में साफ झलकती है. लोक कल्याण के हेतु ही मानो उनका समस्त जीवन था. कबीर को वास्तव में एक सच्चे विश्व-प्रेमी का अनुभव था. कबीर की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उनकी प्रतिभा में अबाध गति और अदम्य प्रखरता थी. समाज में कबीर को जागरण युग का अग्रदूत कहा जाता है. 
जन्म: कबीरदास के जन्म के संबंध में अनेक किंवदन्तियाँ हैं. कबीर पन्थियों की मान्यता है कि कबीर का जन्म काशी में लहरतारा तालाब में उत्पन्न कमल के मनोहर पुष्प के ऊपर बालक के रूप में हुआ.
कुछ लोगों का कहना है कि वे जन्म से मुसलमान थे और युवावस्था में स्वामी रामानंद के प्रभाव से उन्हें हिन्दू धर्म की बातें मालूम हुई. एक दिन, एक पहर रात रहते ही कबीर पंचगंगा घाट की सीढ़ियों पर गिर पड़े.
जन्मस्थान: कबीर के जन्मस्थान के संबंध में तीन प्रकार के मतभेद हैं : मगहरकाशी और आजमगढ़ में बेलहरा गाँव.
कबीर का अधिकांश जीवन काशी में व्यतीत हुआ. वे काशी के जुलाहे के रूप में ही जाने जाते हैं. कई बार कबीरपंथियों का भी यही विश्वास है कि कबीर का जन्म काशी में हुआ. किंतु किसी प्रमाण के अभाव में निश्चयात्मकता अवश्य भंग होती है.
माता-पिता: कबीर के माता-पिता के विषय में भी एक राय निश्चित नहीं है. “नीमा और नीरुकी कोख से यह अनुपम ज्योति पैदा हुई थी, या लहर तालाब के समीप विधवा ब्राह्मणी की पाप-संतान के रुप में आकर यह पतितपावन हुए थे, ठीक तरह से कहा नहीं जा सकता है. कई मत यह है कि नीमा और नीरु ने केवल इनका पालन- पोषण ही किया था. एक किवदंती के अनुसार कबीर को एक विधवा ब्राह्मणी का पुत्र बताया जाता है.
शिक्षा: कबीर बड़े होने लगे. कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे-अपनी अवस्था के बालकों से एकदम भिन्न रहते थे. कबीरदास की खेल में कोई रुचि नहीं थी. मदरसे भेजने लायक साधन पिता-माता के पास नहीं थे. जिसे हर दिन भोजन के लिए ही चिंता रहते हो, उस पिता के मन में कबीर को पढ़ाने का विचार भी न उठा होगा. यही कारण है कि वे किताबी विद्या प्राप्त न कर सके.
वैवाहिक जीवन: कबीर का विवाह वनखेड़ी बैरागी की पालिता कन्या लोईके साथ हुआ था. कबीर को कमाल और कमाली नाम की दो संतान भी थी.
गुरु दीक्षा: उस समय काशी में रामानन्द नाम के संत बड़े उच्च कोटि के महापुरूष माने जाते थे. कबीर जी ने उनके आश्रम के मुख्य द्वार पर आकर विनती की: मुझे गुरुजी के दर्शन कराओ.” उस समय जात-पाँत का बड़ा आग्रह रहता था. और फिर काशी ! वहाँ पण्डितों और पाण्डे लोगों का अधिक प्रभाव था.
मृत्यु: कबीर ने काशी के पास मगहर में देह त्याग दी. ऐसी मान्यता है कि मृत्यु के बाद उनके शव को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया थाहिन्दू कहते थे कि उनका अंतिम संस्कार हिन्दू रीति से होना चाहिए और मुस्लिम कहते थे कि मुस्लिम रीति से. इसी विवाद के चलते जब उनके शव पर से चादर हट गई, तब लोगों ने वहाँ फूलों का ढेर पड़ा देखा. बाद में वहाँ से आधे फूल हिन्दुओं ने ले लिए और आधे मुसलमानों ने. मुसलमानों ने मुस्लिम रीति से और हिंदुओं ने हिंदू रीति से उन फूलों का अंतिम संस्कार किया. मगहर में कबीर की समाधि है. जन्म की भाँति इनकी मृत्यु तिथि एवं घटना को लेकर भी मतभेद हैं किन्तु अधिकतर विद्वान उनकी मृत्यु संवत १५७५ विक्रमी (सन १५१८.) मानते हैं, लेकिन बाद के कुछ इतिहासकार उनकी मृत्यु १४४८ को मानते हैं.
                                                      साहित्यिक परिचय: कबीर सन्त कवि और समाज सुधारक थे. उनकी कविता का एक-एक शब्द पाखंडियों के पाखंडवाद और धर्म के नाम पर ढोंग व स्वार्थपूर्ति की निजी दुकानदारियों को ललकारता हुआ आया और असत्य व अन्याय
की पोल खोल धज्जियाँ उडाता चला गया. कबीर का अनुभूत सत्य अंधविश्वासों पर बारूदी पलीता था. सत्य भी ऐसा जो
आज तक के परिवेश पर सवालिया निशान बन चोट भी करता है और खोट भी निकालता है.
कबीरदास की भाषा और शैली: कबीरदास ने बोलचाल की भाषा का ही प्रयोग किया है. भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था. वे वाणी के डिक्टेटर थे. जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा है, उसे उसी रूप में कहलवा लियाबन गया है तो सीधेसीधे, नहीं दरेरा देकर. अत्यन्त सीधी भाषा में वे ऐसी चोट करते हैं कि खानेवाला केवल धूल झाड़ के चल देने के सिवा और कोई रास्ता नहीं पाता.
पंचमेल खिचड़ी भाषा: कबीर की रचनाओं में अनेक भाषाओँ के शब्द मिलते हैं यथा-अरबीफ़ारसीपंजाबी, बुन्देलखंडी, ब्रजभाषा, खड़ीबोली आदि के शब्द मिलते हैं इसलिए इनकी भाषा को पंचमेल खिचड़ीया सधुक्कड़ीभाषा कहा जाता है.
कबीरदास का भक्त रूप: कबीरदास का यह भक्त रूप ही उनका वास्तविक रूप है. भक्ति या भगवान के प्रति अहैतुक अनुराग की बात कहते समय उन्हें ऐसी बहुत सी बातें कहनी पड़ीं हैं जो भक्ति नहीं हैं. पर भक्ति के अनुभव करने में सहायक हैं. वाणी द्वारा उन्होंने उस निगूढ़ अनुभवैकगम्य तत्त्व की और इशारा किया है.
महान समाज सुधारक: कबीर ने ऐसी बहुत सी बातें कही हैं, जिनसे (अगर उपयोग किया जाए तो) समाजसुधार में सहायता मिल सकती है, पर इसलिए उनको समाजसुधारक समझना गलती है. वस्तुतः वे व्यक्तिगत साधना के प्रचारक थे. समष्टिवृत्ति उनके चित्त का स्वाभाविक धर्म नहीं था. वे व्यष्टिवादी थे. सर्वधर्म समन्सय के लिए जिस मजबूत आधार की जरूरत होती है वह वस्तु कबीर के पदों में सर्वत्र पाई जाती है, वह बात है भगवान के प्रति अहैतुक प्रेम और मनुष्य मात्र को उसके निर्विशिष्ट रूप में समान समझना. परन्तु आजकल सर्वधर्म समन्वय से जिस प्रकार का भाव लिया जाता है, वह कबीर में एकदम नहीं था.
सभी धर्मों के बाह्य आचारों और अन्तर संस्कारों में कुछ न कुछ विशेष देखना और सब आचारों, संस्कारों के प्रति सम्मान की दृष्टि उत्पन्न करना ही यह भाव है. कबीर इनके कठोर विरोधी थे. उन्हें अर्थहीन आचार पसन्द नहीं थे, चाहे वे बड़े से बड़े आचार्य या पैगम्बर के ही प्रवर्त्तित हों या उच्च से उच्च समझी जाने वाली धर्म पुस्तक से उपदिष्ट हों. बाह्याचार की निरर्थक और संस्कारों की विचारहीन गुलामी कबीर को पसन्द नहीं थी. वे इनसे मुक्त मनुष्यता को ही प्रेमभक्ति का पात्र मानते थे. धर्मगत विशेषताओं के प्रति सहनशीलता और संभ्रम का भाव भी उनके पदों में नहीं मिलता. परन्तु वे मनुष्य मात्र को समान मर्यादा का अधिकारी मानते थे. जातिगत, कुलगत, आचारगत श्रेष्ठता का उनकी दृष्टि में कोई मूल्य नहीं था. सम्प्रदायप्रतिष्ठा के भी वे विरोधी जान पड़ते हैं. परन्तु फिर भी विरोधाभास यह है कि उन्हें हजारों की संख्या में लोग सम्प्रदाय विशेष के प्रवर्त्तक मानने में ही गौरव अनुभव करते हैं.
जीवन दर्शन : कबीर परमात्मा को मित्र, माता, पिता और पति के रूप में देखते हैं. वे कहते हैं
हरिमोर पिउ, मैं राम की बहुरियातो कभी कहते हैं 
हरि जननी मैं बालक तोराउस समय हिंदु जनता पर मुस्लिम आतंक का कहर छाया हुआ था. कबीर ने अपने पंथ को इस ढंग से सुनियोजित किया जिससे मुस्लिम मत की ओर झुकी हुई जनता सहज ही इनकी अनुयायी हो गयी. उन्होंने अपनी भाषा सरल और सुबोध रखी ताकि वह आम आदमी तक पहुँच सके. इससे दोनों सम्प्रदायों के परस्पर मिलन में सुविधा हुई. इनके पंथ मुसलमान-संस्कृति और गोभक्षण के विरोधी थे. कबीर को शांतिमय जीवन प्रिय था और वे अहिंसा, सत्य, सदाचार आदि गुणों के प्रशंसक थे. अपनी सरलता, साधु स्वभाव तथा संत प्रवृत्ति के कारण आज विदेशों में भी उनका आदर होता है.
धर्मगुरु: कबीर धर्मगुरु थे. इसलिए उनकी वाणियों का आध्यात्मिक रस ही आस्वाद्य होना चाहिए, परन्तु विद्वानों ने नाना रूप में उन वाणियों का अध्ययन और उपयोग किया है. काव्यरूप में उसे आस्वादन करने की तो प्रथा ही चल पड़ी है. समाजसुधारक के रूप में, सर्वधर्मसमन्वयकारी के रूप में,हिन्दूमुस्लिमऐक
विधायक के रूप में भी उनकी चर्चा कम नहीं हुई है. यों तो हरि अनंत हरिकथा अनंता, विविध भाँति गावहिं श्रुतिसंताके अनुसार कबीर कथित हरि की कथा का विविध रूप में उपयोग होना स्वाभाविक ही है, पर कभीकभी उत्साहपरायण विद्वान गलती से कबीर को इन्हीं रूपों में से किसी एक का प्रतिनिधि समझकर ऐसीऐसी बातें करने लगते हैं जो कि असंगत कही जा सकती हैं.
कबीर का दर्शन यानि गागर में सागर: कबीर के बारे में कहा जाता है कि वे कवि थे, समाज सुधारक थे. वस्तुत: कबीर किसी व्यक्ति नहीं वरन एक दर्शन का नाम है जो गागर में सागर समेटे हुए हैं. अध्यात्म का तत्वज्ञान उनका मुख्य विषय है. अध्यात्म के गूढ़ रहस्यों को कबीर ने अपने पदों में इतनी कुशलता से समाहित किया है कि ज्ञानी व खोजी बुद्धि को उतने में ही सब कुछ समझ आ जाता है, जबकि साधारण मस्तिष्क भी उसमें सामान्य तुकबंदी का रस ले लेता है.